Thursday, August 25, 2016

देवघर

9 अगस्त को तकरीबन 5 बजे देवघर के बेलाबगान इलाके के मंदिर के पास कतार में लगे कांवरिये अफरातफरी मचाने लगते हैं. जल्दी जल चढ़ाने की होड़ में पुलिस के घेरे और अनुशासन को तोड़ डालते हैं और उस के बाद शुरू हुई धक्कामुक्की भगदड़ में बदल जाती है. देखते ही देखते ‘बोल बम’ का जयकारा चीखपुकार में बदल जाता है. हर ओर से रोने और चिल्लाने की आवाजें आने लगती हैं. शिव को जल चढ़ाने के लिए 100 किलोमीटर से ज्यादा की दूरी पैदल तय कर के देवघर पहुंचे अंधभक्ति में डूबे कांवरियों की जान तथाकथित ईश्वर शिव भी नहीं बचा सके. धर्म के नाम पर लगने वाले मजमों में भगदड़ मचना अब नई बात नहीं रह गई है. सरकार और प्रशासन के खासे बंदोबस्त के बावजूद भगदड़ मचती है और बेतहाशा मौतें होती हैं. ऐसी भगदड़ों के पीछे पोंगापंथियों का उपद्रव ही होता है. भीड़ में होने की वजह से वे किसी की सुनते नहीं और अपनी मनमानी करते हैं.

हर साल सावन के महीने में बिहार के भागलपुर जिले के सुल्तानगंज कसबे से कांवर ले कर लोग पैदल झारखंड में देवघर शहर के शिवमंदिर तक जाते हैं. सुल्तानगंज में गंगा नदी उत्तरवाहिनी है. सुल्तानगंज में अजगैबीनाथ मंदिर में पूजा करने के बाद गंगा का पानी ले कर लोग 110 किलोमीटर पैदल चल कर देवघर के शिवमंदिर तक पहुंचते हैं. सुल्तानगंज से ले कर देवघर तक अंधविश्वास का खुला खेल चलता है. भगवा रंग के कपड़े पहने और कंधे पर कांवर उठाए ज्यादातर शिवभक्त खुद को किसी बादशाह से कम नहीं समझते हैं. रास्ते में कानून की धज्जियां उड़ाना और मनमानी करना उन का शगल होता है. कांवरियों की भीड़ में चलने वाले अधिकतर लोग पूजा के नाम पर पिकनिक का मजा लूटते हैं.

8 अगस्त को सुल्तानगंज में कांवरियों की टोली में शामिल होने के बाद मुझे यह स्पष्ट हो गया कि ज्यादातर कांवरियों को पूजापाठ से कोईर् मतलब नहीं होता है. वे तो भीड़ में शामिल हो कर मजे लूटते हैं और डीजे के कानफाड़ू संगीत में लड़कियों व औरतों पर फब्तियां कसते हैं. धर्म और अंधविश्वास के सागर में सिर तक डूबे कांवरिये ‘बोल बम’ का नारा लगाते हुए शरारती कांवरियों की बदमाशियों को यह कह कर अनदेखा कर देते हैं कि लफंगों की करतूतों को भगवान देख रहा है, वही सबक सिखाएगा . कांवर यात्रा के दौरान तारपुर के पास मिले पटना सिविल कोर्ट के वकील प्रवीण कुमार बताते हैं कि कांवरियों की भीड़ में कई लुच्चेलफंगे शामिल रहते हैं, जिन का मकसद छींटाकशी और छेड़खानी करना ही होता है. ऐसे ही लोगों की वजह से उपद्रव और भगदड़ का माहौल पैदा हो जाता है. कांवरिये यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वे भगवान के भक्त हैं और गंगा का पवित्र जल ले कर शिवलिंग पर चढ़ाने जा रहे हैं. लेकिन टोली में ज्यादातर लोग भांग, गांजा और खैनी के नशे में रहते हैं. जहांतहां रुक कर गांजा और भांग पी कर ये कांवरिये नशे में बौराते दिख जाते हैं.

पूर्णियां के भट्ठा बाजार महल्ले में रहने वाले प्रौपर्टी डैवलपर उमेशराज सिंह बताते हैं कि वे पिछले 12 सालों से हर साल कांवर ले कर देवघर जाते हैं और हर साल कांवरियों की मनमौजी व नशा करने की लत को देखते रहे हैं. किसी कांवरिये को जब गांजा और भांग आदि पीने से मना किया जाता है तो वह एक ही जबाब देता है कि शिव के भक्त नशा नहीं करेंगे तो शिव प्रसन्न ही नहीं होंगे. कांवरियों की कांवर यात्रा के बीच इस बात का भी खुलासा हुआ है कि कांवर के नाम पर धर्म की दुकान चलाने वालों के कारोबार व मुनाफे  में कंपनी, होलसैलर, दुकानदार से ले कर पंडों तक की हिस्सेदारी होती है. कांवरिया अपने साथ टौर्च, 2 जोड़ी कपड़े, गमछा, तौलिया, चादर, मोमबत्ती, माचिस, गिलास, लोटा, कांवर आदि ले कर चलता है. यात्रा के लिए ये सभी चीजें नई ही खरीदी जाती हैं. पुराने कपड़ों या गिलास आदि का उपयोग नहीं किया जाता है.

एक कांवरिये को कम से कम 2 हजार रुपए का सामान खरीदना पड़ता है. एक महीने में करीब 60 लाख कांवरिये देवघर जाते हैं. इस लिहाज से हिसाब करें तो कांवरिये करीब 1,200 करोड़ रुपए की खरीदारी एक महीने के अंदर ही करते हैं. इस के अलावा चूड़ा, इलायचीदाना, बद्धी (सूत की माला) आदि को खरीदने पर एक कांवरिया कम से कम 500 रुपए खर्च करता है. इस के बाजार का आकलन करें तो यह 3 हजार करोड़ रुपए का होता है. इस के अलावा कांवर के बगैर भी देवघर पहुंच कर शिवलिंग पर जल चढ़ाने वालों का अलग ही आंकड़ा है. पोंगापंथ के नाम पर लोग 20 हजार करोड़ रुपए लुटा देते हैं. कांवरयात्रा के साथ जब जलेबिया इलाके में पहुंचे तो वहां लूट और ठगी का अलग ही नजारा देखने को मिला. सड़कों के किनारे खाली पड़ी सरकारी जमीनों पर जहांतहां शामियाने डाल कर स्थानीय दबंग कांवरियों को सोने के लिए जगह बेचते हैं. शामियाने के अंदर सोने के लिए जमीन देने के नाम पर हर कांवरिये से 50 रुपए वसूले जाते हैं. एक गिलास शरबत की कीमत 20 से 25 रुपए तक वसूली जाती है. धर्म के नाम पर आंखें बंद कर अपनी मेहनत की कमाई को लुटा कर कांवरिये इसी भ्रम में रहते हैं कि उन की तपस्या से खुश हो कर भगवान उन की हर कामना को पूरा कर देंगे, उन के घर पर धनदौलत की बारिश होगी और घरपरिवार में कोई समस्या नहीं रहेगी.
जलेबिया से 8 किलोमीटर आगे चलने के बाद तागेश्वर इलाका आता है. वहां पर सड़क के किनारे कांवर रखने के लिए बांस का स्टैंड बना हुआ है. पोंगापंथियों का मानना है कि कांवर में गंगा नदी के पानी से भरा लोटा या डब्बा लटका होता है, इसलिए कांवर को जमीन पर नहीं रखना चाहिए, इस से गंगा का पानी अपवित्र हो जाता है. पंडेपुजारी ही धर्म की किताबों व प्रवचनों में ढोल पीटते रहे हैं कि गंगा का पानी हर अपवित्र चीज को पवित्र कर देता है. गंगा का पानी समाज की हर गंदगी को बहा ले जाता है. ऐसे में गंगा के पानी से भरे डब्बे को जमीन पर केवल रखने मात्र से वह पानी अपवित्र कैसे हो जाता है? मुजफ्फरपुर के कांटी इलाके की कांवरिया रुक्मिणी शर्मा से जब इस बारे में पूछा तो वे कहती हैं कि गंगा का पानी जमीन पर रखने से अपवित्र न हो, इसलिए कांवर को जहांतहां नहीं रख देना चाहिए. देवघर के शिवमंदिर में गंगाजल चढ़ाने के लिए 8-10 किलोमीटर लंबी कतार लग जाती है. 337 वर्गमीटर में फैले करीब ढाई लाख की आबादी वाले देवघर शहर में सावन महीने में हर दिन 2 लाख से ज्यादा कांवरिये पहुंचते हैं. ऐसे में प्रशासन के लिए कांवरियों की भीड़ को कंट्रोल करना बहुत बड़ी मुसीबत होती है. सावन में कांवर यात्रा के दौरान दुकानदारों, फुटपाथी दुकानदारों, होटलों और ढाबों को चलाने वालों की तो मानो लौटरी निकल पड़ती है.

देवघर के घंटाघर के पास छोटा सा ढाबा चलाने वाला एक व्यक्ति कहता है कि सावन के महीने का इंतजार तो देवघर के कारोबारी पूरे साल करते हैं. बाकी महीनों में जहां 20 से 30 हजार रुपए की आमदनी हर महीने होती है, वहीं केवल सावन में ढाई से 3 लाख रुपए की कमाई हो जाती है. 200 रुपए के कमरे के लिए लोग हजार रुपए तक देने में नानुकुर नहीं करते. क्योंकि उस दौरान किसी भी होटल में आसानी से जगह नहीं मिल पाती है. एक घंटे के लिए फ्रैश होने के लिए लोग 400 से 500 रुपए आसानी से दे देते हैं. वहीं दूसरी ओर, शहरवासियों के लिए पूरा महीना फजीहत से भरा होता है. देवघर में हर सड़क, गली, चौराहे पर जाम का नजारा रहता है. देवघर के रहने वाले राजीव पांडे कहते हैं कि सावन के महीने में कांवरियों की भीड़ की वजह से सड़कों पर चलना मुहाल हो जाता है. दफ्तर, स्कूल, मार्केट, अस्पताल आदि जाने में पसीने छूट जाते हैं. कंधे पर कांवर ले कर पता नहीं लोग खुद को क्या समझ लेते हैं, कोई गाड़ी कितना भी हौर्न बजाए, कांवरिये रास्ता नहीं छोड़ते हैं.

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